भारत की भूगर्भिक संरचना

परिचय:

भारत की भूगर्भिक संरचना का विकास पंजिया के अंगारा लैंड तथा गोंडवाना लैंड के विभाजन से प्रारंभ होता है।भारतीय भूगर्भिक संरचना को ऐतिहासिक कार्यक्रम के अनुरूप विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है यहां प्रीकैंब्रियन आर्कियन संरचना से धारवाड़, कुड़प्पा, विंध्यन तथा टर्शियरी युगीन विभिन्न भूस्थलाकृतियों का विकास हुआ। यहां की प्रीकैंब्रियन युगीन स्थलाकृतियों में जहां अरावली पर्वत, छोटा नागपुर का पठारी क्षेत्र, विंध्यन श्रेणी आदि प्रमुख है,वही टर्शियरी युगीन हिमालय पर्वत का विकास भारत के उत्तरी सीमांत क्षेत्र में विभिन्न उपकालखंडों में हुआ है।

पैंजिया का विभाजन और विभिन्न स्थलखंडों का निर्माण

1. पैंजिया का परिचय

पैंजिया एक विशाल महाद्वीपीय प्लेट थी, जो लगभग 335 मिलियन वर्ष पूर्व से 175 मिलियन वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में थी। यह सभी महाद्वीपों का एकत्रित रूप था, जिसका आकार एक सुपरकॉन्टिनेंट के रूप में था। पैंजिया के निर्माण से पृथ्वी की भूगर्भीय गतिविधियाँ और जलवायु परिवर्तन हुए, जिसने जीवों के विकास पर प्रभाव डाला।

2. पैंजिया का विभाजन

पैंजिया का विभाजन टेक्टोनिक प्लेटों की गतिविधियों के कारण हुआ। लगभग 175 मिलियन वर्ष पहले, पैंजिया दो मुख्य भागों में विभाजित होना शुरू हुआ:

  • लॉरेशिया: उत्तरी भाग, जिसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया का कुछ हिस्सा शामिल था।
  • गोंडवाना: दक्षिणी भाग, जिसमें दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका और भारतीय उपमहाद्वीप शामिल थे।

3. विभाजन की प्रक्रिया

पैंजिया का विभाजन एक लंबी प्रक्रिया थी, जो विभिन्न भूगर्भीय समयावधियों में फैली हुई थी:

  • जुरासिक काल (लगभग 200 मिलियन वर्ष पूर्व): पैंजिया का विभाजन प्रारंभ हुआ, जिससे समुद्री जल की मात्रा बढ़ी और समुद्री जल निकायों का निर्माण हुआ।
  • क्रेटेशियस काल (लगभग 145 से 66 मिलियन वर्ष पूर्व): लॉरेशिया और गोंडवाना में और अधिक विभाजन हुआ। लॉरेशिया ने उत्तरी अमेरिका और यूरोप को अलग किया, जबकि गोंडवाना ने अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका और भारतीय उपमहाद्वीप को अलग किया।

4. विभिन्न स्थलखंडों का निर्माण

विभाजन के परिणामस्वरूप, पृथ्वी पर कई स्थलखंडों का निर्माण हुआ:

  • उत्तर अमेरिका: लॉरेशिया का हिस्सा जो उत्तरी गोलार्ध में है।
  • दक्षिण अमेरिका: गोंडवाना का हिस्सा जो दक्षिणी गोलार्ध में स्थित है।
  • अफ्रीका: गोंडवाना का एक अन्य महत्वपूर्ण हिस्सा।
  • ऑस्ट्रेलिया: गोंडवाना से अलग हुआ और अपने आप में एक महाद्वीप बना।
  • अंटार्कटिका: गोंडवाना का अंतिम भाग, जो दक्षिण ध्रुव पर स्थित है।
  • भारत: प्रारंभ में गोंडवाना का हिस्सा, बाद में यह उत्तर की ओर बढ़ा और एशिया से टकरा गया, जिससे हिमालय का निर्माण हुआ।

5. महत्वपूर्ण तथ्य

  • पैंजिया के विभाजन ने जीवों के विकास, जलवायु परिवर्तन, और भौगोलिक संरचनाओं पर गहरा प्रभाव डाला।
  • इस विभाजन ने पृथ्वी पर विविध पारिस्थितिकी तंत्रों और जलवायु क्षेत्रों का निर्माण किया, जो विभिन्न जीवों की विविधता को बढ़ाने में सहायक रहा।

पैंजिया का विभाजन एक महत्वपूर्ण भूगर्भीय घटना थी, जिसने पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति और जीवों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह प्रक्रिया आज भी जारी है और टेक्टोनिक प्लेटों की गति के कारण नए महाद्वीपों और जल निकायों का निर्माण होता रहता है।

आर्कियन काल की चट्टान (Archean Rocks)

आर्कियन काल की चट्टान (Archean Rocks) पृथ्वी के भूवैज्ञानिक समय के एक महत्वपूर्ण हिस्से का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह काल लगभग 4.0 से 2.5 अरब वर्ष पहले फैला हुआ है और इस दौरान पृथ्वी की प्रारंभिक क्रस्ट का विकास हुआ।

आर्कियन काल की चट्टानों की विशेषताएँ

  1. संगठन:
    • आर्कियन चट्टानें मुख्यतः बेजिक और मैफिक चट्टानों से बनी होती हैं, जैसे कि बेसाल्ट, ग्नाइस, शिस्ट, और क्वार्टजाइट
    • ये चट्टानें अक्सर मेटामॉर्फिक होती हैं, जिसमें ऊष्मा और दबाव के कारण संरचनात्मक परिवर्तन होते हैं।
  2. उपस्थिति:
    • आर्कियन चट्टानें आमतौर पर क्रेटन में पाई जाती हैं, जो पृथ्वी की सबसे पुरानी और स्थायी भूभाग होते हैं।
    • इन चट्टानों में बैंडेड आयरन फॉर्मेशन (Banded Iron Formations) भी शामिल होते हैं, जो ऑक्सीकरण की प्रक्रिया का संकेत देते हैं।
  3. जीवाणु:
    • आर्कियन काल के दौरान सूक्ष्मजीवों का विकास हुआ। इन चट्टानों में जीवाणु गतिविधियों के प्रमाण मिलते हैं, जैसे स्ट्रोमैटोलाइट्स (stromatolites), जो प्रारंभिक जीवन के सबूत हैं।

आर्कियन काल की चट्टानें:

आर्कियन काल की चट्टानों में मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार की चट्टानें शामिल हैं:

3.1. प्राचीन ज्वालामुखीय चट्टानें

  • बेसाल्ट: यह चट्टान ज्वालामुखीय गतिविधियों से उत्पन्न होती है और इसका निर्माण लावा के ठंडा होने से होता है। यह आर्कियन काल की सबसे आम ज्वालामुखीय चट्टान है।

3.2. शेल और सैंडस्टोन

  • सैंडस्टोन: यह चट्टान छोटे कणों के जमाव से बनती है और आर्कियन काल में पाई जाती है। यह आमतौर पर समुद्री या नदी के निकट के क्षेत्रों में मिलती है।
  • शेल: यह शेल इकट्ठा करने वाले जीवों की गतिविधियों से बनी चट्टानें हैं, जो समुद्र की गहराई में पाई जाती हैं।

3.3. ग्नाइसिस और शिस्ट

  • ग्नाइसिस: यह एक मेटामॉर्फिक चट्टान है, जो उच्च तापमान और दबाव के कारण बनी है। यह आर्कियन काल के दौरान बड़े क्षेत्र में फैली हुई है।
  • शिस्ट: यह भी एक मेटामॉर्फिक चट्टान है, जो ग्नाइसिस की तरह ही बनती है, लेकिन इसमें स्पष्ट लेयर्स होती हैं।

भारत में आर्कियन काल की चट्टानें

भारत में आर्कियन काल की चट्टानें विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाती हैं। यहाँ कुछ प्रमुख उदाहरण दिए गए हैं:

  1. कर्णाटक का हांसुर क्षेत्र:
    • यहाँ ग्नाइस और बेसाल्ट चट्टानें पाई जाती हैं, जो उच्च मेटामॉर्फिज्म का उदाहरण हैं।
  2. तमिलनाडु का कुड्रमुख क्षेत्र:
    • इस क्षेत्र में बैंडेड आयरन फॉर्मेशन और मैफिक चट्टानें हैं, जो लोहे के उच्च खनिज संसाधनों के लिए प्रसिद्ध हैं।
  3. राजस्थान का अरावली पर्वत:
    • अरावली पर्वत श्रृंखला में ग्नाइस, शिस्ट और क्वार्टजाइट जैसी चट्टानें पाई जाती हैं, जो पृथ्वी के प्रारंभिक विकास के महत्वपूर्ण प्रमाण हैं।
  4. उड़ीसा का गंजाम क्षेत्र:
    • यहाँ आर्कियन ग्रेनाइट और ग्नाइस चट्टानें पाई जाती हैं, जो वोल्केनिक गतिविधियों का प्रमाण देती हैं।

आर्कियन चट्टानों का महत्व:

  • खनिज संसाधन: आर्कियन चट्टानें भारत में विभिन्न खनिज संसाधनों का स्रोत हैं, जैसे लौह अयस्क, सोना, और अन्य बहुमूल्य खनिज।
  • जीव विज्ञान: ये चट्टानें प्रारंभिक जीवन के विकास के सबूत प्रदान करती हैं, जिससे हम पृथ्वी पर जीवन के उद्भव को समझ सकते हैं।
  • भूविज्ञान अध्ययन: आर्कियन चट्टानें पृथ्वी के भूविज्ञान के विकास के महत्वपूर्ण सबूत हैं, जो भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की समझ में मदद करती हैं।

धारवाड़ क्रम की चट्टान:

परिचय: धारवाड़ क्रम (Dharwad Series) भारत के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में स्थित एक भूवैज्ञानिक संरचना है। यह चट्टानें मुख्यतः कर्नाटक राज्य में पाई जाती हैं और इन्हें प्राचीन चट्टानों के समूह के रूप में जाना जाता है। धारवाड़ क्रम की चट्टानें प्राचीनतम समय की हैं और इन्हें आर्कियन युग से संबंधित माना जाता है।

भूवैज्ञानिक महत्व: धारवाड़ क्रम को पृथ्वी के भूविज्ञान में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ये चट्टानें लगभग 3.5 से 2.5 अरब वर्ष पुरानी हैं और इनमें विभिन्न प्रकार के खनिज, जैसे कि फेल्स्पार, क्वार्ट्ज और माइक कोराइट पाए जाते हैं। इन चट्टानों का अध्ययन भूवैज्ञानिक समय के इतिहास, भूपरिवर्तन और पृथ्वी के विकास को समझने में सहायक है।

धारवाड़ क्रम की संरचना:

  1. आकार और संरचना: धारवाड़ क्रम की चट्टानें मुख्यतः ग्रेनाइट, ग्नाईस और अन्य मेटामॉर्फिक चट्टानों के रूप में पाई जाती हैं। इनकी संरचना में विभिन्न खनिजों का मिश्रण होता है, जिससे इनकी भौतिक और रासायनिक विशेषताएँ बनती हैं।
  2. आवरण: धारवाड़ चट्टानों का आवरण काफी कठोर और मजबूत होता है। इनमें से कई चट्टानें सख्त होती हैं, जबकि कुछ चट्टानों में हल्की दरारें या रंध्र भी हो सकते हैं।
  3. मेटामॉर्फिज्म: ये चट्टानें अधिकतर मेटामॉर्फिक प्रक्रिया के तहत बनी हैं, जिससे उनका गठन होता है। इस प्रक्रिया में तापमान और दबाव के कारण चट्टानों के खनिजों की संरचना में बदलाव आता है।

खनिज सामग्री: धारवाड़ क्रम में विभिन्न प्रकार के खनिज पाए जाते हैं, जो इसके आर्थिक महत्व को बढ़ाते हैं। इनमें कुछ प्रमुख खनिज निम्नलिखित हैं:

  • फेल्स्पार: यह एक प्रमुख खनिज है, जिसका उपयोग कांच और सिरेमिक उद्योग में किया जाता है।
  • क्वार्ट्ज: क्वार्ट्ज का उपयोग विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं में होता है, जैसे कि सैंडब्लास्टिंग और कच्चे माल के रूप में।
  • लोहा और तांबा: धारवाड़ क्रम में लोहा और तांबा जैसे धातुओं के अयस्क भी पाए जाते हैं, जो खनन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

भूगोलिक स्थिति: धारवाड़ क्रम मुख्यतः कर्नाटक के धारवाड़, बागलकोट, और शिमोगा जिलों में फैला हुआ है। यह क्षेत्र हरा-भरा और पहाड़ी है, जिससे यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता आकर्षण का केंद्र है।

आर्थिकी और उपयोगिता: धारवाड़ क्रम की चट्टानें न केवल भूवैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये आर्थिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। इनसे प्राप्त खनिजों का उपयोग विभिन्न उद्योगों में होता है, जिससे क्षेत्रीय विकास में योगदान मिलता है। इसके अलावा, इन चट्टानों का अध्ययन भूगर्भीय अनुसंधान और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने में भी सहायक है।

धारवाड़ क्रम की चट्टानें प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों के महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करती हैं और ये हमारे ग्रह के विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इनकी अध्ययन और संरक्षण न केवल भूवैज्ञानिक अनुसंधान के लिए आवश्यक है, बल्कि यह आर्थिक विकास के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार, धारवाड़ क्रम की चट्टानें भारतीय भूगोल और अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनके संरक्षण और अध्ययन से हम न केवल भूतपूर्व समय को समझ सकते हैं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में भी सक्षम हो सकते हैं।

कुड़प्पा क्रम की चट्टान:

परिचय: कुड़प्पा क्रम (Kadappa Series) भारतीय भूविज्ञान में एक महत्वपूर्ण भूगर्भीय इकाई है, जो मुख्यतः दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश और कर्नाटक राज्यों में फैली हुई है। इस चट्टान का नाम कर्नाटक के कुड़प्पा शहर के नाम पर रखा गया है। कुड़प्पा क्रम की चट्टानें मुख्यतः मेटामॉर्फिक और सिडिमेंट्री चट्टानों से बनी हैं और इनका गठन लगभग 2.5 से 1.0 अरब वर्ष पूर्व का है।


भूवैज्ञानिक महत्व: कुड़प्पा क्रम का अध्ययन भूविज्ञान और प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन चट्टानों के भीतर विभिन्न प्रकार के खनिज और तत्व पाए जाते हैं, जो इनकी भौतिक और रासायनिक विशेषताओं को दर्शाते हैं। ये चट्टानें प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं और विभिन्न भूगर्भीय प्रक्रियाओं का अध्ययन करने में सहायक होती हैं।


कुड़प्पा क्रम की संरचना:

  1. चट्टानों का प्रकार:
    • कुड़प्पा क्रम में मुख्यतः सिडिमेंट्री चट्टानों जैसे कि शेल, सैंडस्टोन, और लाइमस्टोन का अध्ययन किया गया है। इसके साथ ही, कुछ मेटामॉर्फिक चट्टानें भी इस क्रम में शामिल हैं।
    • इन चट्टानों की संरचना भूगर्भीय समय के साथ बदलती रही है, जिसके कारण इनमें विभिन्न प्रकार के खनिजों का निर्माण हुआ है।
  2. विशिष्ट लक्षण:
    • कुड़प्पा क्रम की चट्टानों की विशेषता उनके रंग और बनावट में होती है। इनमें गहरे रंग की शेल चट्टानें और हल्की रंग की सैंडस्टोन चट्टानें शामिल हैं।
    • इन चट्टानों में विभिन्न आकार की रंध्र और दरारें पाई जाती हैं, जो उनकी मेटामॉर्फिक प्रक्रियाओं का संकेत देती हैं।

खनिज सामग्री: कुड़प्पा क्रम में कई महत्वपूर्ण खनिज पाए जाते हैं, जो इस चट्टान को आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख खनिज हैं:

  • फेल्स्पार: जिसका उपयोग कांच और सिरेमिक उद्योग में किया जाता है।
  • क्वार्ट्ज: यह खनिज विभिन्न औद्योगिक उपयोगों के लिए महत्वपूर्ण है, जैसे कि सिलिकॉन चिप निर्माण में।
  • लोहा और अन्य धातु: कुड़प्पा क्रम में लोहे और अन्य धातुओं के अयस्क भी पाए जाते हैं, जो खनन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

भौगोलिक स्थिति: कुड़प्पा क्रम मुख्यतः आंध्र प्रदेश के विभिन्न जिलों में स्थित है, जैसे कडपा, अनंतपुर, और कर्नाटक के कुछ हिस्सों में। इस क्षेत्र का भूगोल पहाड़ी और पठारी है, जिससे यह क्षेत्र प्राकृतिक सुंदरता से भरा हुआ है।


आर्थिकी और उपयोगिता: कुड़प्पा क्रम की चट्टानें न केवल भूवैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनसे प्राप्त खनिजों का उपयोग विभिन्न उद्योगों में होता है, जिससे क्षेत्रीय विकास में योगदान मिलता है।

  1. खनन उद्योग: कुड़प्पा क्रम में पाए जाने वाले खनिजों का खनन कई उद्योगों में किया जाता है, जैसे कि निर्माण, कांच, और धातु उद्योग।
  2. विज्ञान अनुसंधान: कुड़प्पा चट्टानों का अध्ययन भूगर्भीय विज्ञान, जलवायु परिवर्तन, और भूपरिवर्तन के प्रभावों को समझने में सहायक है।

कुड़प्पा क्रम की चट्टानें भारतीय भूविज्ञान में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये प्राचीन भूगर्भीय प्रक्रियाओं और विभिन्न खनिजों के विकास का महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करती हैं। कुड़प्पा क्रम के संरक्षण और अध्ययन से हम भूविज्ञान की गहराईयों को समझ सकते हैं और साथ ही इस क्षेत्र के आर्थिक विकास में भी योगदान कर सकते हैं।

इन चट्टानों का अध्ययन न केवल भूविज्ञान के लिए आवश्यक है, बल्कि यह पर्यावरणीय स्थिरता और आर्थिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। कुड़प्पा क्रम की चट्टानें प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं और इस प्रकार, ये हमारी पृथ्वी के विकास को समझने में सहायक होती हैं।

विंध्यन क्रम की चट्टान

परिचय: विंध्यन क्रम (Vindhyan Series) भारतीय भूविज्ञान की एक महत्वपूर्ण चट्टानी इकाई है, जो मुख्यतः मध्य भारत में स्थित है। इसका नाम विंध्य पर्वत श्रृंखला के नाम पर रखा गया है, जो कि इसे उत्तरी और दक्षिणी भारत के बीच विभाजित करता है। विंध्यन चट्टानें सिडिमेंट्री (अवसादी) चट्टानों के समूह में आती हैं और इनका निर्माण लगभग 1.6 अरब वर्ष पूर्व से लेकर 1 अरब वर्ष पूर्व के बीच हुआ था।


भूवैज्ञानिक महत्व: विंध्यन क्रम का अध्ययन भूविज्ञान, paleontology (पैलियंटोलॉजी), और जलवायु विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विंध्यन चट्टानों के भीतर कई महत्वपूर्ण जीवाश्म और खनिज पाए जाते हैं, जो प्राचीन पर्यावरण और भूगर्भीय प्रक्रियाओं को समझने में सहायक होते हैं। इन चट्टानों का भूविज्ञान विभिन्न भूवैज्ञानिक घटनाओं का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।


विंध्यन क्रम की संरचना:

  1. चट्टानों का प्रकार:
    • विंध्यन क्रम में मुख्यतः सैंडस्टोन, शेल, और लाइमस्टोन जैसी सिडिमेंट्री चट्टानें पाई जाती हैं। इनमें शेल चट्टानें विशेष रूप से जीवाश्मों के लिए प्रसिद्ध हैं।
    • ये चट्टानें मुख्यतः नदी के किनारों, झीलों और समुद्री परिवेश में जमा हुई हैं, जो इनके गठन की प्रक्रिया को दर्शाती हैं।
  2. विशिष्ट लक्षण:
    • विंध्यन चट्टानों का रंग सामान्यतः हल्का और ग्रे होता है। इनमें विभिन्न आकार की दरारें और रंध्र होते हैं, जो कि जल और अन्य रासायनिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप बने होते हैं।
    • विंध्यन चट्टानों में कुछ स्थानों पर धारियाँ और परतें स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं, जो कि इनकी अवसादी प्रक्रिया को दर्शाती हैं।

खनिज सामग्री: विंध्यन क्रम में कई महत्वपूर्ण खनिज पाए जाते हैं, जो इसके आर्थिक महत्व को बढ़ाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख खनिज हैं:

  • कोयला: विंध्यन क्षेत्र में कोयले के महत्वपूर्ण भंडार पाए जाते हैं, जो ऊर्जा उत्पादन के लिए आवश्यक हैं।
  • लोहा और तांबा: विंध्यन चट्टानों में लोहे और तांबे के अयस्क भी पाए जाते हैं, जिनका उपयोग खनन उद्योग में किया जाता है।
  • गिप्सम और रॉक फॉस्फेट: ये खनिज कृषि और अन्य औद्योगिक उपयोगों के लिए महत्वपूर्ण हैं।

भौगोलिक स्थिति: विंध्यन क्रम मुख्यतः मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, और राजस्थान के कुछ हिस्सों में फैला हुआ है। यह क्षेत्र पहाड़ी और पठारी है, जो इसके प्राकृतिक सौंदर्य को बढ़ाता है। विंध्य पर्वत श्रृंखला के आसपास की भूगोलिक स्थिति इस चट्टान के अध्ययन के लिए एक आदर्श वातावरण प्रदान करती है।


आर्थिकी और उपयोगिता: विंध्यन क्रम की चट्टानें न केवल भूवैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनसे प्राप्त खनिजों का उपयोग विभिन्न उद्योगों में होता है, जैसे कि:

  1. ऊर्जा उत्पादन: विंध्यन क्षेत्र में पाए जाने वाले कोयले का उपयोग थर्मल पावर प्लांट में किया जाता है, जिससे ऊर्जा उत्पादन में मदद मिलती है।
  2. खनन उद्योग: विंध्यन चट्टानों से प्राप्त खनिजों का खनन विभिन्न उद्योगों में किया जाता है, जैसे कि निर्माण, कागज, और धातु उद्योग।
  3. विज्ञान अनुसंधान: विंध्यन चट्टानों का अध्ययन भूगर्भीय विज्ञान, जलवायु परिवर्तन, और भूपरिवर्तन के प्रभावों को समझने में सहायक है।

विंध्यन क्रम की चट्टानें भारतीय भूविज्ञान में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। ये प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों और विभिन्न खनिजों के विकास का महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रदान करती हैं। विंध्यन क्रम के संरक्षण और अध्ययन से हम भूविज्ञान की गहराईयों को समझ सकते हैं और साथ ही इस क्षेत्र के आर्थिक विकास में भी योगदान कर सकते हैं।

इन चट्टानों का अध्ययन न केवल भूविज्ञान के लिए आवश्यक है, बल्कि यह पर्यावरणीय स्थिरता और आर्थिक विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। विंध्यन क्रम की चट्टानें प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं और इस प्रकार, ये हमारी पृथ्वी के विकास को समझने में सहायक होती है।

गोंडवाना क्रम की चट्टान:

1. भूवैज्ञानिक इतिहास: गोंडवाना क्रम का गठन लगभग 600 से 200 मिलियन वर्ष पहले हुआ, जो पैलियोज़ोइक युग (लगभग 541 से 252 मिलियन वर्ष पहले) से मेसोज़ोइक युग (लगभग 252 से 66 मिलियन वर्ष पहले) के बीच की अवधि में आता है। इस दौरान, भारतीय उपमहाद्वीप गोंडवाना महाद्वीप का हिस्सा था, जो कि वर्तमान के दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका और अरब प्रायद्वीप के साथ जुड़ा हुआ था।

2. भौगोलिक वितरण: गोंडवाना चट्टानों का वितरण मुख्यतः मध्य और पूर्वी भारत में है। प्रमुख क्षेत्रों में शामिल हैं:

  • झारखंड: यहाँ कोयला खनन के बड़े क्षेत्र हैं, जैसे कि धनबाद और रामगढ़।
  • छत्तीसगढ़: इस राज्य में भी कोयला और अन्य खनिजों का भंडार है।
  • ओडिशा: यहाँ पर लौह अयस्क और अन्य खनिजों की मात्रा अधिक है।
  • मध्य प्रदेश: यहाँ पर गोंडवाना क्रम की चट्टानों का एक बड़ा हिस्सा फैला हुआ है।

3. गोंडवाना के खनिज:

  • कोयला: गोंडवाना क्रम के अंतर्गत भारत में पाए जाने वाले कोयले के भंडार का अधिकांश हिस्सा यहाँ स्थित है। यह विशेष रूप से तापीय विद्युत उत्पादन में उपयोग किया जाता है।
  • लोहा और मंगनीज: गोंडवाना क्षेत्र में लोहे के अयस्कों की खदानें भी पाई जाती हैं।
  • अन्ना: गोंडवाना चट्टानों में कई अन्य खनिज जैसे कि बोक्साइट, चूना पत्थर और संगमरमर भी मिलते हैं।

4. जीवाश्म: गोंडवाना क्रम में पाए जाने वाले जीवाश्म न केवल भूगर्भीय प्रक्रियाओं का प्रमाण हैं, बल्कि ये प्राचीन जीवन के विकास का भी संकेत देते हैं। यहाँ पर विभिन्न प्रकार के पौधों और जीवों के जीवाश्म मिलते हैं, जैसे कि:

  • स्पोर और पैलिनोफाइट्स: ये प्राचीन पौधों के अवशेष होते हैं, जो गोंडवाना युग के दौरान उभरे थे।
  • मछलियों के जीवाश्म: विभिन्न प्रकार की मछलियों के जीवाश्म भी गोंडवाना चट्टानों में पाए जाते हैं, जो इस क्षेत्र की जैव विविधता को दर्शाते हैं।

5. भूगर्भीय संरचना: गोंडवाना क्रम की चट्टानों की संरचना विभिन्न प्रकार की भूगर्भीय गतिविधियों का परिणाम है। ये चट्टानें कई परतों में बनी होती हैं, जो विभिन्न प्रकार की जलवायु और पर्यावरणीय परिस्थितियों के कारण बनी हैं। यहाँ पर:

  • सैंडस्टोन: यह चट्टान जलधाराओं और समुद्र के किनारों पर जमा हुई सैंड के कणों से बनी होती है।
  • शेल: यह चट्टान अधिकांशतः समुद्री जीवों के अवशेषों से बनी होती है और इसमें जीवाश्मों का बड़ा भंडार होता है।
  • लाइमस्टोन: यह चट्टान कैल्शियम कार्बोनेट से बनी होती है, जो समुद्री जल में उपस्थित जीवों से प्राप्त होती है।

6. आर्थिक महत्व: गोंडवाना क्रम की चट्टानें भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ये चट्टानें:

  • ऊर्जा उत्पादन: कोयले का उपयोग बिजली उत्पादन में किया जाता है, जिससे यह एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत बनता है।
  • खनन उद्योग: गोंडवाना क्षेत्र में खनन उद्योग आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। खनिजों के खनन से क्षेत्रीय रोजगार में वृद्धि होती है।
  • वाणिज्यिक उपयोग: गोंडवाना चट्टानों से निकाले गए खनिजों का उपयोग निर्माण, कागज, और धातु उद्योग में किया जाता है।

7. पर्यावरणीय प्रभाव: गोंडवाना चट्टानों का खनन और उपयोग पर्यावरण पर प्रभाव डालता है। इसके कारण भूमि उपयोग में परिवर्तन, वन्यजीवों का विनाश, और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए, इन चट्टानों के संरक्षण और सतत विकास के लिए उचित नीतियों की आवश्यकता है।

गोंडवाना क्रम की चट्टानें भारतीय भूविज्ञान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये न केवल प्राचीन भूगर्भीय गतिविधियों और जीवाश्मों का साक्ष्य प्रदान करती हैं, बल्कि आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इनका अध्ययन और संरक्षण भूविज्ञान के लिए आवश्यक है और यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि हम इन संसाधनों का उपयोग सतत और जिम्मेदारी से करे।

दक्कन ट्रैप:

परिचय: दक्कन ट्रैप (Deccan Traps) एक विशाल बेसाल्टिक लावा प्रवाह का समूह है, जो भारत के दक्कन क्षेत्र में स्थित है। यह दुनिया के सबसे बड़े ज्वालामुखीय क्षेत्रों में से एक है और लगभग 66 मिलियन वर्ष पूर्व (क्रीटेशियस काल के अंत में) के दौरान सक्रिय रहा। दक्कन ट्रैप की चट्टानें मुख्यतः बेसाल्ट से बनी हैं, और इसका क्षेत्रफल लगभग 5,00,000 वर्ग किलोमीटर है, जो भारत के अधिकांश पश्चिमी और मध्य भागों में फैला हुआ है।


भूवैज्ञानिक महत्व: दक्कन ट्रैप का भूवैज्ञानिक महत्व अत्यधिक है, क्योंकि यह पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास को समझने में मदद करता है। दक्कन ट्रैप के अध्ययन से वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद मिलती है कि ज्वालामुखीय गतिविधियाँ और जलवायु परिवर्तन किस प्रकार वैश्विक घटनाओं को प्रभावित कर सकती हैं।

दक्कन ट्रैप के निर्माण का इतिहास: दक्कन ट्रैप का निर्माण मुख्यतः मैग्माटिक गतिविधियों के परिणामस्वरूप हुआ था। इसके गठन की प्रमुख विशेषताएँ हैं:

  1. लावा प्रवाह: दक्कन ट्रैप में प्रवाहित हुए लावा ने एक समान रूप से फैले हुए चट्टानी परतों का निर्माण किया। ये परतें एक दूसरे के ऊपर जमा हुई हैं और प्रत्येक की मोटाई विभिन्न स्थानों पर भिन्न हो सकती है।
  2. ज्वालामुखीय विस्फोट: इस क्षेत्र में ज्वालामुखीय विस्फोटों की गतिविधि भी हुई, जिससे कुछ स्थानों पर प्यूमिस (Pumice) और ऐरोसोल (Aerosol) पदार्थ बने।
  3. दृश्यता और बनावट: दक्कन ट्रैप की चट्टानों की बनावट आमतौर पर अंधेरे रंग की होती है, और इसमें विशाल स्तंभ जैसी संरचनाएँ देखी जा सकती हैं, जिन्हें “कोलम्नर बेसाल्ट” कहा जाता है।

भौगोलिक स्थिति: दक्कन ट्रैप का विस्तार मुख्यतः भारत के महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में है। यह क्षेत्र समतल और पहाड़ी दोनों प्रकार की भूआकृति को प्रस्तुत करता है।


दक्कन ट्रैप की भूगर्भीय संरचना: दक्कन ट्रैप की चट्टानें सामान्यतः तीन प्रमुख संरचनात्मक विशेषताओं में वर्गीकृत की जा सकती हैं:

  1. मोटे बेसाल्टिक प्रवाह: यह क्षेत्र कई किलोमीटर गहरे बेसाल्टिक प्रवाहों से बना है, जो ज्वालामुखीय गतिविधियों के दौरान निकलते हैं।
  2. हैट्रोट्रॉपी (Heterotropy): इन चट्टानों में विभिन्न खनिजों की उपस्थिति होती है, जैसे कि प्लागियोक्लेस, ओलिवाइन, और पायरोक्सीन।
  3. परतों की संरचना: दक्कन ट्रैप में विभिन्न परतें होती हैं, जिनकी मोटाई और रासायनिक संरचना विभिन्न स्थानों पर भिन्न होती है। ये परतें लावा के प्रवाह के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के कारण भी प्रभावित होती हैं।

वातावरणीय प्रभाव: दक्कन ट्रैप का वैश्विक जलवायु पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इस क्षेत्र में ज्वालामुखीय गतिविधियों ने निम्नलिखित समस्याएँ उत्पन्न कीं:

  1. ग्लोबल वार्मिंग: दक्कन ट्रैप के ज्वालामुखीय विस्फोटों ने वातावरण में बड़े पैमाने पर गैसों, जैसे कि कार्बन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड, को उत्सर्जित किया। इससे जलवायु परिवर्तन की संभावनाएँ बढ़ीं।
  2. प्राकृतिक संसाधनों का संहार: दक्कन ट्रैप के ज्वालामुखीय विस्फोटों ने प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया, जो उस समय के जीवों और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव डाल सकते थे।
  3. जीवों का विलुप्ति: वैज्ञानिकों का मानना है कि दक्कन ट्रैप के विस्फोटों और जलवायु परिवर्तन ने डाइनोसॉर के विलुप्त होने में योगदान दिया।

आर्थिकी: दक्कन ट्रैप का क्षेत्र खनिजों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ है। यहाँ पर कोयला, लौह अयस्क, और अन्य खनिजों का खनन किया जाता है। इसके अलावा, दक्कन ट्रैप की चट्टानों का उपयोग भवन निर्माण, सड़क निर्माण और अन्य औद्योगिक गतिविधियों में भी किया जाता है।


दक्कन ट्रैप एक महत्वपूर्ण भूविज्ञानिक संरचना है, जो भारतीय उपमहाद्वीप के भूगर्भीय इतिहास को समझने में सहायक है। यह न केवल ज्वालामुखीय गतिविधियों का साक्ष्य प्रस्तुत करता है, बल्कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन और जीवों के विकास के अध्ययन में भी महत्वपूर्ण है। इसके अध्ययन से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि भूगर्भीय प्रक्रियाएँ हमारे पर्यावरण और जीवन पर कैसे प्रभाव डालती हैं। दक्कन ट्रैप की चट्टानों का संरक्षण और सतत उपयोग भी महत्वपूर्ण है, ताकि हम भविष्य में इन संसाधनों का बेहतर उपयोग कर सकें।

भारत का आकार और स्थिति। Indian geography

https://youtu.be/l-_1Ch9-0rI?si=RSN61SsNkdIx2IpL

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